सर्वोच्च न्यायालय ने सोमवार को एक विवाहित महिला को उसके गर्भ में पल रहे 26 सप्ताह के भ्रूण को समाप्त करने की अनुमति देने से इनकार करते हुए कहा कि ‘अजन्मे बच्चे के दिल की धड़कन को बंद करने की इजाजत नहीं दे सकते। शीर्ष अदालत ने एम्स की ओर पेश मेडिकल रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहा कि महिला के गर्भ में पल रहा भ्रूण पूरी तरह से स्वस्थ है और उसमें कोई विसंगति नजर नहीं आई है।
मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने कहा कि याचिकाकर्ता महिला दो बच्चों की मां है और उसके गर्भावस्था 24 सप्ताह से अधिक समय का हो गया है जो चिकित्सकीय गर्भपात की अनुमति की अधिकतम सीमा है, ऐसे में गर्भपात की अनुमति देना मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी (एमटीपी) अधिनियम के तहत प्रावधानों का उल्लंघन होगा। पीठ ने कहा कि भ्रूण 26 सप्ताह पांच दिन का है और मेडिकल रिपोर्ट से साफ है कि याचिकाकर्ता महिला और उसके गर्भ में पल रहे भ्रूण को तत्काल कोई जोखिम नहीं है। पीठ ने कहा कि चूंकि यह भ्रूण में किसी तरह के विकृति का मामला नहीं है, ऐसे में गर्भपात की इजाजत नहीं दी जा सकती है। गर्भपात की मांग वाली महिला की याचिका को खारिज करते हुए, शीर्ष अदालत ने कहा कि बच्चे का जन्म डॉक्टरों की देखरेख में एम्स में होगा और चिकित्सा खर्च केंद्र सरकार द्वारा वहन किया जाएगा। पीठ ने यह भी साफ किया कि बच्चे के जन्म के बाद यदि उसके (बच्चे) माता पिता चाहेंगे तो बच्चे को गोद देने में भी सरकार मदद करेगी।
एम्स की ओर से पेश मेडिकल रिपोर्ट में कहा गया कि महिला के गर्भ में पल रहे भ्रूण में कोई असामान्यता नहीं दिखी है। इसमें यह भी कहा गया कि डॉक्टरों की देखरेख में गर्भावस्था और प्रसवोत्तर मनोविकृति के दौरान मां और बच्चे को अच्छी तरह से प्रबंधित किया जा सकता है। पीठ को बताया कि महिला को मनोविकृति के लिए जो दवाई दी जा रही है, उससे भ्रूण को कोई नुकसान नहीं हुआ है। इससे, पहले केंद्र की ओर से अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल ऐश्वर्य भाटी ने पीठ को बताया कि मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट- 1971 के बारे में अवगत कराया। उन्होंने कहा कि अब यह विकल्प का मामला नहीं है बल्कि प्री-टर्म डिलीवरी और फुल-टर्म डिलीवरी के बीच चयन का मामला है। उन्होंने सरकार की ओर से पीठ को भरोसा दिया कि सरकार याचिकाकर्ता महिला और उनके पति को चिकित्सा परामर्श सहित सभी चीजों से सहायता करेगी।
महिला की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता कॉलिन गोंसाल्वेस ने शीर्ष अदालत को बताया कि अजन्मे बच्चे से जुड़े मुद्दे मसले पर अंतरराष्ट्रीय कानून में मौजूदा समय में अजन्मे बच्चे पर कोई अधिकार नहीं है, जबकि याचिकाकर्ता महिला का अधिकार पूर्ण है। इस पर शीर्ष न्यायालय ने उनसे सवाल किया कि क्या उन मामलों में महिला को 33 सप्ताह के गर्भ में भी गर्भपात की अनुमति दी जानी चाहिए, जहां भ्रूण असामान्य नहीं है। शीर्ष अदालत ने कहा कि कानून बनने की चुनौती को कुछ अन्य कार्यवाही में निपटाया जाना चाहिए क्योंकि अब मामला महिला और राज्य तक सीमित है। महिला की ओर से अधिवक्ता ने कहा कि उनका मुवक्किल गर्भावस्था को जारी नहीं रखना चाहती है। अधिवक्ता ने पीठ को बताया था कि यदि उनके मुवक्किल को गर्भावस्था जारी रखने के लिए मजबूर किया जाता है तो यह उसके अधिकार का हनन होगा।
क्या है ये मामला
शीर्ष अदालत ने 9 अक्तूबर को महिला को गर्भपात की इजाजत दे दी थी। इसके अगले दिन केंद्र ने शीर्ष अदालत में मौखिक तौर पर इस आदेश को वापस लेने का आग्रह किया और बाद में इसके लिए औपचारिक तौर पर अर्जी भी दाखिल की थी। केंद्र की अर्जी पर दो न्यायमूर्ति की पीठ ने बुधवार को खंडित आदेश पारित किया था। दोनों न्यायमूर्ति की राय अलग होने के कारण अब मामले को मुख्य न्यायाधीश के समक्ष भेजा दिया गया था ताकि इस पर सुनवाई बड़ी पीठ के समक्ष हो सके। इस मसले पर गुरुवार को पीठ ने कहा था कि ‘हम बच्चे को नहीं मार सकते। यह टिप्पणी करते हुए पीठ ने केंद्र और याचिकाकर्ता के वकील को उससे (याचिकाकर्ता महिला से) गर्भावस्था को कुछ और सप्ताह तक बरकरार रखने की संभावना पर बातचीत करने के लिए कहा था